हाथ ख़ाली हैं तिरे शहर से जाते जाते
Poet: राहत इंदौरी By: Irfan, Sialkotहाथ ख़ाली हैं तिरे शहर से जाते जाते
जान होती तो मिरी जान लुटाते जाते
अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है
उम्र गुज़री है तिरे शहर में आते जाते
अब के मायूस हुआ यारों को रुख़्सत कर के
जा रहे थे तो कोई ज़ख़्म लगाते जाते
रेंगने की भी इजाज़त नहीं हम को वर्ना
हम जिधर जाते नए फूल खिलाते जाते
मैं तो जलते हुए सहराओं का इक पत्थर था
तुम तो दरिया थे मिरी प्यास बुझाते जाते
मुझ को रोने का सलीक़ा भी नहीं है शायद
लोग हँसते हैं मुझे देख के आते जाते
हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते
More Hindi Poetry
लम्हे लम्हे की ना-रसाई है लम्हे लम्हे की ना-रसाई है
ज़िंदगी हालत-ए-जुदाई है
मर्द-ए-मैदाँ हूँ अपनी ज़ात का मैं
मैं ने सब से शिकस्त खाई है
इक अजब हाल है कि अब उस को
याद करना भी बेवफ़ाई है
अब ये सूरत है जान-ए-जाँ कि तुझे
भूलने में मिरी भलाई है
ख़ुद को भूला हूँ उस को भूला हूँ
उम्र भर की यही कमाई है
मैं हुनर-मंद-ए-रंग हूँ मैं ने
ख़ून थूका है दाद पाई है
जाने ये तेरे वस्ल के हंगाम
तेरी फ़ुर्क़त कहाँ से आई है
ज़िंदगी हालत-ए-जुदाई है
मर्द-ए-मैदाँ हूँ अपनी ज़ात का मैं
मैं ने सब से शिकस्त खाई है
इक अजब हाल है कि अब उस को
याद करना भी बेवफ़ाई है
अब ये सूरत है जान-ए-जाँ कि तुझे
भूलने में मिरी भलाई है
ख़ुद को भूला हूँ उस को भूला हूँ
उम्र भर की यही कमाई है
मैं हुनर-मंद-ए-रंग हूँ मैं ने
ख़ून थूका है दाद पाई है
जाने ये तेरे वस्ल के हंगाम
तेरी फ़ुर्क़त कहाँ से आई है
Taimoor






